शालिनी तिवारी

प्रकृति यानी एक ऐसी कृति जो पहले से ही अस्तित्व में है. कभी लोप न होने वाले इस अस्तित्व के कारण ही सभी जड़-चेतन एक सामंजस्य के साथ गतिमान है; यहां तक कि समूचे ब्रह्माण्ड की गतिशीलता का मूल भी प्रकृति ही है. प्रकृति की इस महत्ता को जानने के बावजूद, आज हम प्रकृति रूपी वरदान का अति दोहन करने से हम चूक नहीं रहे. कहने को तो भारत के निर्माता, दुनिया के विकसित कहे जाने वाले देशों के साथ-साथ कदम ताल करने की कोशिश कर रहे हैं, किंतु वे पलटकर यह देखने की कोशिश नहीं कर रहे कि यह कदम-ताल कितनी सार्थक है, कितनी निरर्थक ? इसका उत्तर भविष्य स्वतः दे ही देगा, किंतु तब तक अपनी अस्मिता को वापस हासिल करना कितना मुश्किल हो जायेगा; यह समझना अभी संभव है.

प्रकृति प्रेम : भारतीय गुरुत्व का मूलाधार

भारतीय समाज के आधुनिक हिस्से के पास आज स्वयं के बारे में चिंतन-मनन करने का वक्त नहीं है, तो फिर उनके पास आगे चलकर जीवनदायिनी प्रकृति के संरक्षण के लिए वक्त होगा; यह उम्मीद भी शायद झूठी ही है. हम भूल गये कि यदि भारत कभी विश्वगुरु था, तो अपने प्राकृतिक, सांस्कृतिक ज्ञान और उसके पुरोधा ऋषि-मुनियों के कारण ही. समूची दुनिया में भारतीय संस्कृति ही एक ऐसी है कि जो प्रकृति को प्रभु प्रदत्त वरदान मानकर उसके प्रति पूजनीय भाव रखने का निर्देश देती है. भारतीय संस्कृति में हर जन को उसकी इच्छा मुताबिक किसी भी वृक्ष, नदी और रज को पूजने, अपनाने एवं भावनात्मक रूप से उससे जुड़ने की खुली आज़ादी है. क्या कभी हमने सोचा कि हमारी भारतीय संस्कृति, प्रकृति प्रेम को इतना तवज्जो क्यों देती रही है ?

सुविधा संपन्न के प्रकृति जुङाव की संस्कृति

अतीत के एक ख़ास दौर में मानव, प्रकृति के बेहद करीब था. कृषि और पशुपालन के साथ-साथ हमारा रिहायशी कुनबा अस्तित्व में आया. प्रकृति से हमारी नजदीकियां बढ़ती गईं. वनवासी और सुविधा संपन्न समाज के बीच   विरोध के बजाय सौहार्द्र को होना भारतीय संस्कृति की विशेषता रही. इस विशेषता की खास वजह थीं सुविधा संपन्न नगर समाज का समय-समय पर जंगलों में जाकर तप करना, आश्रम बनाकर गुरुकुल चलाना. जड़ी-बूटी आधारित पारंपरिक चिकित्सा पद्धति और पौराणिक आख्यानों और कथानकों का पर्वतां, नदियों एवं जंगलों के इर्द-गिर्द बुना जाना. आज क्या है ? आज बच्चों के स्क्रीन पर प्रकृति की बजाय, फाइटर गेम और कार रेस हैं.

शोषक बनाता वैश्वीकरण

सभ्यतायें, पानी की देन हैं. संस्कृतियां, नदियों से पोषित हुई हैं. सभ्यता, संस्कृति और समूल चेतन को पोषण देने का श्रेय प्रकृति को ही है. वह आज भी अपना धर्म निबाह रही है. नई सामाजिक व्यवस्थाओं का गढ़ना कोई नई बात नहीं है. उनका संचालन हुआ . ऐसे नित् नूतन प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि मानव ने स्वयं को एक छोटे से कुनबे से निकालकर विश्व छितिज पर ला खड़ा किया. यह अच्छा ही हुआ. किंतु क्या वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा वाले भारत नये तरह के वैश्वीकरण की चपेट में आ जाना अच्छा हुआ ?  वैश्वीकरण ने जिस प्रतिद्वंदिता को जन्म दिया. उसी के कारण आज हम भारतीय भी सिर्फ शोषण पर अमादा है. क्या यह अच्छा है ??

बिकाऊ संवेदनाओं वाला देश बनता भारत

कहना न होगा कि बदले स्क्रीन और प्रतिद्वंदिता की दौङ में आगे निकल जाने की कुचाल ने प्रकृति की सुन्दरता, जंगलों की सघनता, जीवों की विविधता, हम इंसान की शालीनता और दूरदर्शिता को निगल लिया है. दलाल संस्कृति का खामियाजा यह है कि प्रकृति की बेहाल अस्मिता को वापस लौटाने का दावा करने वाले मौकापरस्त और भोगवादी लोग, सरकार और जनता के मध्यस्थ बनकर मालामाल हो रहे है . उनका यह पुनीत कार्य सिर्फ जुमलों, भाषणों, दफ्तर की फाइलों और सजावाटी दस्तावेजों तक ही सीमित होता जा रहा है. अपना पैर जमाने के घमण्ड में हमने प्रकृति को एक खुला बाजार बना डाला है – हवा, पानी और धरा … सबका खुल्लम-खुल्ला मोलभाव होने लगा है. निवेशकों से आग्रह करता बोर्ड लग गया है – ”प्रकृति के प्रति हमारी संवेदनायें बिकाऊ हैं. बोलो, खरीदोगे ?”

दूरदृष्टि दोष

हमारी मरती संवेदनाओं की मूल वजह असल क्या है ? असल में बदलते वक्त के साथ आज हमने अपनी मूल भावनाओं, संवेदनाओं और समग्रता की समझ को ही बदल डाला है. हमारी बदली हुई नज़र में समग्रता और दूरदृष्टि में कमी का दोष आ गया है. नतीजा भी सामने है. हम पर प्राकृतिक आपदाओं का पहाङ टूटने का सिलसिला तेज हो गया है. आए दिन कहीं सूखा, कहीं बाढ़, तो कहीं तूफान और कहीं भूकंप.

वनवासी नहीं वन के दुश्मन

इस रज के मूल बासिन्दे, प्रकृति के असली संरक्षक आदिवासियों का उत्थान करने की बजाय, खोखली मानसिकता वाली हमारी सरकारें उन्हे हाशिये पर ठेलने में लगी हैं. जंगलों के विनाश का ठीकरा भी वनवासियों के सिर फोडकर उन्हे जंगल से बाहर निकालने के प्रयास में लगी हैं. यह बेहद खोखला दावा है. आप ही गुनिए कि अत्याधुनिकता की इस दौङ में भी जो स्वयं को प्रकृति की गोद में समेटे हुए है, वह प्रकृति का विनाशक कैसे हो सकता है ? यदि वनवासी, वन में रहने दिए गये होते, तो क्या उत्तराखण्ड के वनों की आग बेकाबू होने पाती ? सोचिए, यह नीतिकारों के भी सोचने का प्रश्न है.

वक्त की आवाज़ सुनें

पौराणिक आख्यान और तथ्य भारत की रज, मां गंगे के जल और वनस्पतियों को विकृति विनाशक मानते है.  निःसन्देह ये हैं भी. किंतु क्या ऐसा मानने वाला भारत तद्नुकूल व्यवहार कर रहा है ? दीर्घकालिक समस्याओं का समाधान क्या कभी तात्कालिक लाभ के उपाय हो सकते हैं ?  नहीं; फिर भी निजी लोभ व लालच की पूर्ति की अंधेपन में हम सच से मुंह मोङ रहे हैं.  शिझा एवं जन जागरूकता ऐसे प्रबल माध्यम हैं, जिनके जरिये कोई व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक परिपक्वता अर्जित कर सकता है . हमें समझना होगा कि प्रकृति की समृद्धि के बगैर किसी व्यक्ति, समाज व देश की समृद्धि ज्यादा दिन टिक नहीं सकती. प्रकृति संरक्षण, मानव के खुद के संरक्षण का कार्य है. हमें यह करना ही होगा. इस वक्त की यही सबसे बड़ी दरकार है.