डलिया बनाना सिखा रहे आईआईटी के छात्र


iit kaanpurएक जमाना था जब गावों में स्त्रियां गर्मियों की लंबी दुपहरिया सोते हुए नहीं बल्कि मंूज से छोटी बड़ी तमाम रंग-बिरंगी डलिया बुनने में बिताती थीं, लेकिन अब उत्तर प्रदेश का यह जाना-पहचाना हस्तशिल्प विस्मृत सा हो चुका है। ऐसे में आई.आई.टी. कानपुर के कुछ छात्रों ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय की पहल से इस विलुप्त हो चुके हस्तशिल्प को पुनजीर्वित करने का बीड़ा उठाया है। ये छात्र महिलाओं और लड़कियों को डलिया बुनने की कला में प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मंूज से बनी ये डलिया (कहीं कहीं इसे डलवा भी कहा जाता था, जो आकार में बड़े होते थे) अनाज एकत्र करने, उसे ढोने और सहेजने में खूब प्रयुक्त होते थे।
आई.आई.टी. कानपुर के वार्षिक उत्सव ‘संतराग्निÓ के दौरान एक स्टाल पर मंूज से बनी रंग-बिरंगी डलिया हस्तशिल्पकार महिलाओं ने प्रदर्शित कर सराहना बटोरी। मंूज और कासा एक तरह की जंगली घास होती है जो यमुना नदी के किनारे बहुतायत में उगती है। ऐसा नहीं कि यह अन्यत्र नहीं होती। यूपी के गांवों में तालाबों के किरारे यह उगती है। मंूज दरअसल सरपत की ऊपरी परत होती है जिसे छीलकर छोटे-छोटे गोलों-जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘बल्लाÓ कहा जाता है के रूप में बांधकर सुखा लिया जाता है। फिर इसे भिगोकर मुलायम बनाया जाता है और सूखे हुए कासा पर लपेटा जाता है और डलिया बुन ली जाती है।
कासा पर लपेटने से पहले मंूज को विभिन्न रंगों से रंगा भी जाता है और इस रंगीन मूंज से हस्तशिल्पी डलियों में तरह-तरह की रंग-बिरंगी डिजायनें बुन देते हैं। इस हस्तशिल्प को सीखना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। तीन महीने के प्रशिक्षण से इसमें दक्षता हासिल की जा सकती है, बशर्ते सीखने वाले में सीखने का जज्बा हो। इस हस्तशिल्प को कुटीर उद्यम के रूप में लोकप्रिय बनाया जा सकता है।


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